Saturday, September 30, 2023

बीती ताहि बिसार दे

शाम हो चली थी, ट्रेन पटरी पर पूरी गति से दौड़ रही थी, आदित्य देव अस्त होने की तैयारी में थे। आकाश में लालिमा छा गई थी और धरती पर धुंधलका आने लगा था। 

एक बार नजर अनायास ही शून्य से सामने गुजरते नजारों पे आ टिकी
वही तेज भागती पटरी, वही हरे भरे खेत, 
सन सन कर एक के बाद एक गुजरते पेड़
और दूर गगन में अस्त होता सूर्य
एक बारगी लगा कॉलेज के दिन लौट आए
दुर्ग से रायपुर जा रहा हूं शायद, अभी स्टील प्लांट गुजरता होगा। 
घर पहुंच मां को कुछ गरमा गर्म खिलाने को कहूंगा, और कुछ ना हुआ तो उसके हाथ का दाल चावल भी चलेगा।
तीव्र गति से सरपट भागती ट्रेन से भी तेज ये मन, न जाने अनायास ही आज पीछे की ओर हो लिया। 

तभी अचानक किसी भाई साहब ने बगल में छींक कर एक्सक्यूज मि कहा। उनकी गोरी शकल पे ध्यान गया तो इर्द गिर्द का भान हुआ। ये तो मैं अपनो के बीच नहीं हूं। ये ट्रेन दुर्ग से रायपुर नहीं, लंदन से रेडिंग की ओर जाती है। 

ऐसा लगा जैसे किसी ने मन के कान खींच कर अतीत से वर्तमान में पटक दिया हो। मन तो मन ठहरा, उसे तो आदत है टाइम ट्रैवल की। वो फिर खिड़की से बाहर हरे खेतो में हिंदुस्तान खोजने लगा। पर तब तक मानस पटल ने अतीत के दरीचो को बंद कर दिया था। 
मन, मन मसोस कर वर्तमान में ठहर गया और सुंदर अतीत की ललक में एक लुभावना वर्तमान रचने लगा। काश बीस साल पहले घर ना छोड़ता, काश के घर के आस पास कोई अच्छी नौकरी मिल जाती। फलां को देखो, वो तो वहीं हैं, लाख डेढ़ लाख होम टाउन में बैठ कर कमा रहा है महीने के। गाड़ी,घर किसी चीज की कमी नहीं। मां बाप भाई बहन का साथ है सो अलग। काश ये जीवन चुना होता। क्या मिल गया दूर देश आके, ना खुद का घर है, ना बात करने को चार लोग। पैसे पाउंड में हैं तो खर्चे भी। जो थोड़ा बहुत बच गया वो भी इस सुरसा के मुख की तरह बढ़ते खर्चों की भेंट चढ़ जाता है। आग लगे इस भागदौड़ को। स्वामी विवेकानंद सही कह गए की चलो मन जाए घर अपने, इस परदेस में ओ परदेस में , क्यों परदेसी रहे, चलो मन जाए घर अपने


मस्तिष्क ने भी अपनी कही। कहा कि अंग्रेजी में एक कहावत है, nostalgia is a liar. जब हृदय भूतकाल की सैर पर निकलता है तो मेमोरी ट्रेन सिर्फ अच्छी यादों के स्टेशन पर थमती है। ये हमारे मन मस्तिष्क का डिफेंस मैकेनिज्म है। बुरी यादें मन भुला देता है। वो हरे भरे लहलहाते खेत याद रहते हैं, पर रायपुर घुसते ही नाक सड़ा देने वाली बदबू याद नहीं रहती। कॉलेज की सुनहरी यादों में हर दूसरे सेमेस्टर में फेल होना याद नहीं आता। दोस्तो की चुहलबाज़ी याद रहती है पर घंटो बैठ मैकेनिकल इंजीनियरिंग की किताबो में सर फोड़ना याद नहीं आता। ये कहना बहुत आसान है कि कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन पर अगर सच में बीते दिन लौट आए तो छाती पीट लेंगे। कहेंगे की हाय बड़ी मुश्किल से तो एमबीए में एडमिशन लिया था क्या कहते हो फिर से CAT के गले में घंटी बांधनी होगी?? इसलिए यादें, यादें ही रहे तो अच्छा। फिर लौट आया गुजरा जमाना तो एक जमाना फिर गुजारना होगा। 

एक दूसरी कहावत है अंग्रेज़ी में, the grass is always greener on the other side, हिंदी में कहते है पड़ोसी का मकान हमेशा अच्छा लगता है । जिस फलां को होम टाउन में फलता फूलता देख हम आहें भरते हैं वोह शायद हमें देख यही करता हो। की देखो भाई ने तो बीस साल में मुंबई पुणे दिल्ली बैंगलोर लंदन सब नाप लिया और हमने तो कुछ अनुभव किया ही नहीं। 
अपनी स्तिथि से संतोष पाना शायद बाबा रामदेव के भी बस का नहीं तो हम तो ठहरे अदना इंसान। बस इतना ही कर सकते हैं कि जब पड़ोस का मकान अच्छा लगे, तो एक नजर अपने आशियाने पर भी डाले। जहां आज आप हैं, वहां भविष्य में मेमोरी ट्रेन की अच्छी यादों का स्टेशन बनेगा। आपका वर्तमान आगे जाकर अतीत की सुनहरी यादें बनेगा। तो जी भर के जिए इस आज को। 

बीती ताहि बिसार दे, आगे कि सुधि ले 

धन्यवाद
Saurabh Roy 

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